December 23, 2024
sept9.1

करनाल/दीपाली धीमान: सम्वत्सरी महापर्व की आराधना तीर्थस्थल श्री आत्म मनोहर जैन आराधना मन्दिर में शान्तमूर्ति महासाध्वी प्रमिला जी महाराज के पावन सानिंध्य में सम्पन्न हुई जिसमें श्रद्धालुओं ने भजनों तथा विचारों के माध्यम से अपनी भावनाएं प्रकट कीं। महासाध्वी श्री प्रमिला जी महाराज ने कहा कि महापर्व सम्वत्सरी आत्म आलोचना, प्रायश्चित तथा पश्चात्ताप का सन्देश लेकर आता है।

भूलों के लिए मानसिक पश्चात्ताप तो होता ही है, साथ ही वचन के द्वारा भी पश्चात्ताप प्रकट करना आवश्यक होता है। वचन ही मन का दर्पण होते है। मन के भावों के अनुसार उच्चारण होना स्वाभाविक है। जो लोग मन में कुछ रखते हैं और वचन से कुछ और बोलते हैं उनका मन कभी पवित्र नहीं रह सकता। कपटी का भीतरी तथा बाहरी रूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। उसके दुखद परिणाम भोगने पर वे सचेत होकर पश्चात्ताप करते हैं।

कपटी की आत्मा अपने आपको धिक्कारती रहती है और उसका जीवन आ‌ह्लादमय नहीं बनता। मन में अपनी भूल के लिए पछतावा न होने पर जबान से खेद प्रकट करने का कोई महत्व नहीं रहता । अपनी भूलों के लिए भगवान द्वारा बनाए विधान के अनुसार पश्चात्ताप तथा आलोचना करनी चाहिए।

अपनी भारी भूल का इच्छानुसार थोड़ा सा प्रायश्चित कर लेना या भूल किसी और प्रकार की हो तथा प्रायश्चित किसी और तरह का, तो वह भूल को ठीक करने का सही मार्ग नही माना जा सकता। जैसे कुशल वैद्य अपने रोग को किसी दूसरे योग्य वैद्य के सामने प्रकट करता है, इसी प्रकार प्रायश्चित्त विधि में निपुण साधक को अपने दोषों आलोचना दूसरे योग्य व्यक्ति के सामने करनी चाहिए।

पश्चात्ताप की आग में आत्मा को निर्मल बनाकर कुन्दन की तरह चमकाया जा सकता है अन्यथा कितने भी शास्त्र पढ़ लिए जाएं, कैसी भी कठोर तपस्या की जाए पर भवसागर को पार करना सम्भव नहीं होता। विकारों के कारण आत्मा भारी होती जाती है, मध्य में डूबने की नौबत आ जाती है। उस समय ज्ञान की गठरी लाभ नहीं पहुंचाती।

महासाध्वी जी ने कहा कि विकारों से बोझिल हो रही आत्मा को पश्चात्ताप तथा आलोचना के द्वारा फिर निर्मल तथा हलका बनाया जा सकता है और सरलतापूर्वक इस भवसागर को पार किया जा सकता है। आलोचना तथा पश्चात्ताप ही भवसागर को तैरने की असली कला है। उसे जाने बिना साधना के विभिन्न अंग भी मानव को उसके उद्‌देश्य की प्राप्ति नहीं करा सकते।

जो व्यक्ति अपनी गलतियों के लिए पश्चात्ताप नहीं करता उसके हृदय से अहं की भावना नहीं जा सकती और वह भविष्य में फिर होने वाली भूलों से नहीं बच सकता। अपने पापों को स्वीकार करना मुक्ति का श्रीगणेश करना है। पाप में पड़ना मानव का स्वभाव है, उसमें डूबे रहूना शैतान का स्वभाव है, उस पर दुखी होना संत का स्वभाव है तथा सब पापों से मुक्त होना ईश्वर का स्वभाव है।

मनुष्य से पाप हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। भूल हो जाना मनुष्य का सहज स्वभाव है। जाने-अनजाने में भी अनेक पाप हो जाते हैं जिनका व्यक्ति को स्वयं भी पता नहीं चलता परन्तु उनका फल जरूर भोगना पड़ता है। मन के क्षणिक विकार से आत्मा की पवित्रता कालिमा में बदल जाती है।

परंतु सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करने पर तथा योग्य गुरु के साम‌ने निवेदन करने पर वह कालिमा कान्ति में बदल जाती है और फिर आत्मा तेजस्विता प्राप्त करता है। अपनी भूलों के पछतावा करना जरूरी है। पछतावा दिखावटी नही होना चाहिए। पछतावे के साथ भूलों को सुधारने तथा भविष्य में न होने देने का संकल्प भी होना चाहिए।

भविष्य में भूलें न होने देने का सबसे बढ़िया उपाय अपने आप को देखना है। सरल और शुद्ध भाव से प्रातःकाल तथा सायंकाल अपने दोषों पर विचार करने वाला भविष्य में अनेक दोषों से बच सकता है। पैनी तथा अन्तर्दृष्टि वाला अपने जीवन की घटनाओं से बहुत लाभ उठा सकता है। व्यर्थ दुख और पश्चात्ताप करके अमृत जैसा समय गंवाना ठीक नहीं है परन्तु जिंदगी में मिले खट्टे-मीठे अनुभवों से लाभ उठाकर शेष जीवन को उपयोगी तथा दोषरहित बनाना चाहिए।

अतीत मनुष्य के हाथ में नहीं है किंतु भविष्य को मनुष्य बना अथवा बिगाड़ सकता है। समय संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु है क्योंकि अनुकूल प्रयत्न के द्वारा सबसे बढ़िया वैभव प्राप्त किया जा सकता है। करोड़ों प्रयत्न करके बीते हुए समय को वापस नहीं लाया जा सकता । मानव शरीर इस भवसागर से पार उतरने के लिए नौका के समान है।

जिस प्रकार नदी पार करके नौका किनारे पर छोड़ दी जाती है, इसी प्रकार इस संसार को पार करके इस नश्वर शरीर का त्याग हो जाता है। इसलिए भूतकाल की भूलों का पश्चात्ताप करते हुए भविष्य के लिए पवित्र भावनाजों से अपने हृदय को सुशोभित करना चाहिए तभी आत्मा शाश्वत सुख पा सकती है।

सम्वत्सरी पर्व यहीं पावन सन्देश लेकर हमारे मध्य उपस्थित होता है। वरिष्ठ उपाध्याय मनोहर मुनि जैन पब्लिक स्कूल के विद्यार्थियों ने प्रेरक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए तथा प्रवीण-अरुण जैन (चिन्तामणि बारदाना) की ओर से प्रभावना बांटी गई।

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