करनाल/भव्या नारंग: श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जी में आज पर्यूषण पर्व का द्वितीय दिवस ‘उत्तम मार्दव धर्म’ के रूप में अति भक्तिभाव से प. पू. आचार्य विनिश्चय सागर जी मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य क्षुल्लक प्रज्ञांश सागर जी के सानिध्य में मनाया गया।
क्षुल्लक जी ने मार्दव धर्म का अर्थ समझाते हुए बताया कि यह अभिमान का त्याग है। अभिमान अज्ञानीप्राणी को होता है वह अपने कुल को ऊंचा मानता है और शेष को नीच कुल का। वह अपने को ऊंची जाति का, अपने को बड़ा रूपवान, धनवान, बलवान, ऋद्धिधारी, तपस्वी अथवा महाज्ञानी मानने लगता है। यही अभिमान है। अभिमानी व्यक्ति अपने यौवन, सम्पत्ति, पद, यश, कारोबार, सम्पर्क पर इतराता है जबकि यह तो क्या जीवन भी शाश्वत नहीं है। यह सब भ्रम है, सपना है, क्षण भंगुर है। यह किसी का न रहा है न रहेगा। रावण जैसे बड़े-बड़े योगी, तपस्वी, विद्वान, बलशाली, चक्रवर्ती नहीं रहे तो हमारी तो बिसात ही क्या है। नारायण श्री कृष्ण ने भी बताया है ‘मैं ’ जब तक अकेला है वह आत्मा है और आत्मा अजर-अमर अर्थात शाश्वत है। लेकिन जैसे ही ‘मैं’ के साथ कोई विशेषण जुड़ जाता है वहीं ‘मैं’ अभिमान में बदल जाता है। जैसे- ‘मैं करोड़पति हूँ।’ बस आ गया ‘अहम’ अर्थात अभिमान। यह पतन का कारण बनता है। अत: अपनी मनोविकृति को सुधारने के लिए अपनी मनोवृत्ति में उत्तम मार्दव धर्म का प्रकाश प्रज्ज्वलित किया जाना अपेक्षित है। बस यही ‘अहम’ अर्थात अभिमान से ‘अर्हम’ अर्थात आत्मा की ओर की यात्रा है।
आज प्रात:कालीन अभिषेक व शान्तिधारा के पश्चात प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव जी की प्रतिमा के साथ भगवान चंदाप्रभु, भगवान शांतिनाथ व भगवान महावीर स्वामी जी को समवशरण में बहुत भक्तिभाव व विनय के साथ विराजमान किया। तथा क्षुल्लक श्री के सानिध्य में लगभग 60 पुण्यशाली भक्तों द्वारा उत्तम मार्दव धर्म की पूजा की जिसमें इन पंक्तियों में निहित संदेश का पालन करने पर विशेष महत्व समझाया गया-
‘‘मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में।
कोमल-सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा।’’