भारतीय हिन्दी सिनेजगत ने अपने गौरवमयी 104 सुनहरे वर्ष विधिवत पूर्ण करते हुए गरिमा की यात्रा के पदचिह्न और यादों के झरोखों से हर उम्र के सिनेमा का प्यार करने वाले लोगों को भरपूर मनोरंजन दिया है। ये वो दिन थे जब हिन्दी सिनेमा एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में न केवल सामाजिक मूल्यों और आदर्शों का गुरुकुल कहलाता था, वहीं ज्ञान का पालना भी था। उल्लेखनीय है कि पहली हिन्दी फिल्म राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म के रूप में सन् 1913 में बनी थी और वहीं दूसरी तरफ सन् 1931 में बोलती फिल्म आलमआरा रिलीज हुई थी।
दशकों की यात्रा पूरी करते हुए हाल ही में सिनेमा एक बार फिर उसी युग का अनुसरण करते हुए राजिन्द्र वर्मा यशबाबू लेखक, निर्माता, निर्देशक ने एक साहसी कदम उठाते हुए हरियाणा की धर्मभूमि कुरुक्षेत्र से ए डॉटर्स टेल पंख हिन्दी फीचर फिल्म को बनाकर पूरे भारत में इसे रिलीज करके एक बार फिर सिने पे्रमियों को न केवल झंझोड़ दिया बल्कि एक सामाजिक चिंतन के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बहुचर्चित बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ ज्वलंत स्लोगन के मूल्य को पुरुष प्रधान समाज में अवतरित करते हुए संकल्प को सार्थक करने की दिशा में पहल की है।
वास्तव में इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे और संकीर्णताओं से ऊपर उठकर इस विचार को पंख के माध्यम से महिला के सशक्तिकरण, उसके संघर्ष के साथ बेटियों की घर आंगन और समाज में गरिमा की कहानी को कैनवास पर खूबसूरती से चित्रित किया गया है, जो समाज की संकीर्ण विचारधारा पर घातक प्रहार करती है। बड़ी रुचिकर बात है कि इस फिल्म में हरियाणवी वातावरण, प्राकृतिक और इसके सौन्दर्य की कहानी को प्राकृतिक रूप से कुरुक्षेत्र-करनाल की धरा पर फिल्मा कर कहानी के साथ सामाजिक न्याय को उभारा गया है।
पत्रकारों से बातचीत करते हुए पंख फिल्म के लेखक, निर्माता, निर्देशक ने एक मुस्कान के साथ कहा कि वास्तव में मैं भारतीय हिन्दी सिनेमा के उन महान फिल्मकारों से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित हूं, जिन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों, उनके आदर्शों और सदाचारों को आगे रखकर फिल्मों का निर्माण किया है और समाज को एक सार्थक दिशा दी। विशेषकर शो मैन राजकपूर का नजरिया, राज खोसला का जुनून और गुरुदत्त की फिल्म निर्माण की गहन तकनीक तथा सुभाष घई की फिल्मी परिकल्पना मेरे मन आत्मा पर हमेशा प्रतिबिम्ब बनाते हैं। उन्होंने कहा कि बेशक फिल्म बनाना आसान हो सकता है, लेकिन बड़ी चुनौती अगर कोई दिशा में है तो वो इसका रिलीज करना है और वितरकों कों ढूंढना है। मुझे वास्तव में फिल्म के वितरण को लेकर आरंभ में कुछ समस्याएं आई, लेकिन प्रभु की असीम कृपा से ये समस्या सहज हल हो गई। मैं वास्तव में उन मित्रों, विशेषकर आलोचकों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूं, जो सकारात्मक और नकारात्मक आलोचनाओं से मुझे इस छोटे से शहर कुरुक्षेत्र से फिल्म बनाने के जुनूनी सपने को वास्तव में साकार करने में ऊर्जा देने वाले साबित हुए।
पंख फिल्म की महत्ता के मद्देनजर इसके वैचारिक वैभव की अगर मैं तारीफ करूं या इसका जिक्र करूं तो ये कहे बगैर मैं नहीं रह सकता कि इसका आलेख, संवाद बेहद रोचक, सागर्भित, स्पष्ट, सार्थक संदेश से भरे हुए और बेटी या स्त्री की गरिमा, शिक्षा की आवश्यकता, सशक्तिकरण की आत्मा को संजोए हुए प्रत्येक दर्शक को आरंभ से अंत तक बांधने में सक्षम थी। यशबाबू ने कहा कि पंख फिल्म का कथानक में तीन शिक्षित बेटियां, एकल मां की छत्रछाया में पली-बड़ी होकर अनेक तरह की चुनौतियों व सामाजिक वेदनाओं से जूझती हुई अपने-अपने लक्ष्यों की दिशा में सफलतापूर्वक बढ़ते हुए पत्रकार, वकील और अभिनेत्री के व्यवसाय में पुरुष प्रधान समाज में अपना सिक्का जमाती हैं। यशबाबू कहते हैं कि फिल्म घर आंगन में बेटी और फिर वही बेटी समाज में किस तरह संघर्ष करती है और हम माता-पिता अपनी बेटियों को आगे बढऩे के लिए, पनपने के लिए कितने अवसर उन्हें देते हैं, उसकी तरफ माता-पिता को दिशाबोध देती है। उन्होंने पंख फिल्म के प्रमुख कलाकारों के बारे में जानकारी देेते हुए बताया कि मुख्य किरदारों में डॉ. निशीगंधा वाड, सुधीर पांडे, मेहुल बुच, वीरेन्द्र सिंह, पूजा दीक्षित, रागिनी दीक्षित, सुरभि कक्कड़, स्टेफी पटेल, राजिन्द्र वर्मा, सुनील तिना और राहुल जेतली ने प्रमुख रूप से अपने सशक्त अभिनय से फिल्म में चार चांद लगाए। पंख फिल्म के लिए निर्माण और रिलीज को मद्देनजर रखते हुए अपने अनुभवों और अपनी भविष्य की योजनाओं के प्रति उदार दृष्टिकोण को प्रकट करते हुए कहा कि मैं अपनी फिल्म पंख को एक संतान के रूप में देखता हूं। पंख कोई फिल्म नहीं मेरी बेटी है और एक पिता होने के नाते ये फिल्म इतना जरूर है कि सामाजिक चिंतन या मुद्दों को लेकर अन्य प्रोड्यूसर भी साहस करेंगे कि वे ऐसी ही फिल्में बनाएं, बशर्ते अन्य राज्यों की सरकारों की तरह हरियाणा सरकार भी ऐसी सामाजिक रूढिय़ों को, जटिलताओं को अपने प्रहार से तोडऩे वाली, दृष्टि देने वाले फिल्म का निश्चित रूप से टैक्स माफ करे और पुरुस्कार की श्रेणी में लाए।
उन्होंने कहा कि भविष्य में मेरी दो फिल्में शीघ्र ही रिलीज होने वाली हैं, जिनमें पंजाबी हास्यपुट से भरी हुई फिल्म टबर पंजाब दा और एक हिन्दी फिल्म अद्भुत लाडली जो असहाय बेटी की वेदना से ओत-प्रोत है। फरवरी और मार्च में रिलीज होगी। उन्होंने कहा कि उनकी दो और हिन्दी फीचर फिल्में रैड स्लीपर और लाइफ में लोचा इसी वर्ष मार्च और जून में शूटिंग हरियाणा-मुंबई में की जाएगी।
भले ही लिंगानुपात में सुधार हरियाणा के नक्शे पर दिखाई देता हो, फिर भी चुनौतियां और भू्रण हत्या जैसे अभिशाप से अभी हम मुक्त नहीं हुए हैं। यदि हमने इसकी रोकथाम करनी है और समाज में चेतना पैदा करनी हैं, तो पंख जैसी फिल्में अग्रणी रूप से व्यापक स्तर पर दिखाने और बनाने का माहौल तैयार करना होगा। इतना तो स्पष्ट है कि ए डॉटर्स टेल पंख फिल्म में बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के तथ्यों को लेकर यहां की जनता की मानसिक सोच में युद्ध स्तर पर बदलाव लाने की क्षमता है। कहानी में वो बात है जो समाज के संकीर्ण, रूड़ीवादी समाज को जमीनी स्तर पर उखाड़ फैंकने में पहल कर सकती है। ये भी स्पष्ट है कि पगड़ी और सतरंगी जैसी दो हरियाणवी फिल्में सामाजिक मुद्दे को संजोकर अगर आवार्ड से नवाजी जाती हैं तो फिर पंख जैसी बेटी बचाओ का शंखनाद करने वाली फिल्म को अवार्ड देना बेटियों के प्रति हक अदा करने का प्रतीक बन सकती है। क्योंकि ये हरियाणा की जमीन पर हरियाणा में हरियाणा की कथावस्तु को लेकर एक हरियाणवी ने दमदार पहल की है। संभवत: मुख्यमंंत्री मनोहर लाल के नारे हरियाणा एक-हरियाणवी एक को इंगित करती है, का सार्थक भाव है।