April 17, 2024

विश्व शांति सेवा चेरिटेबल ट्रस्ट के तत्वाधान में हुड्डा ग्राउंड नंबर 1 सुपर मॉल, नजदीक हुड्डा कार्यालय, करनाल (हरियाणा) में कथा वाचक पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज के मुखारबिद से श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन किया जा रहा है। कथा के अंतिम दिन भी हजारों की संख्या में भक्तों ने महाराज जी के श्रीमुख से कथा का श्रवण किया।

भागवत कथा के सातवें दिन की शुरुआत भागवत आरती और विश्व शांति के लिए प्रार्थान के साथ की गई।

देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा की शुरुआत करते हुए कहा की गलत बातें नही बोलनी चाहिए, दूसरों के बारे में बुरी बातें बोल कर कटाक्ष करना सही नहीं है। अगर बोलना ही है तो धर्म के नाम पर बोलो, देश को आगे बढ़ाने के विषय में बोलो, अगर पूरी जिंदगी दूसरों के बारे में कटाक्ष कर के बिता देनी है तो ऐसी जिंदगी जीने से बढ़िया तो कुछ ओर करो, आपसे आग्रह है की सतमार्ग पर चलिए।

महाराज जी ने कहा की इस संसार में हम लोगों को गोविंद की कृपा से मानव जीवन मिला और इसकी एक एक सांस अनमोल है। हमारी सांस की कितनी कीमत है इस बात का पता इससे चलता है की एक भी सांस हमारे मां बाप हमें नही दे सकते, ना खरीदी जा सकती है, क्या संसार में कोई दुकान है जहां सांस मिलती है ? पूरा जीवन हम कमाई करने में लगा देते हैं लेकिन ये कमाई हमें सांस नहीं दे सकती।

महाराज जी ने कहा की पूरे जीवन की अशांति हम पैसा कमाने में लगा देते हैं और पैसा लेकर बुढ़ापे में घुमते हैं की शांति मिल जाए लेकिन शांति नहीं मिलती। पूरा जीवन खो दिया पैसा कमाने के लिए अब बुढ़ापा खो रहे हैं शांति के लिए । उन्होंने कहा की जीवन बड़ा अनमोल है और इस अनमोल जीवन में श्रीमद् भागवत कथा सुनने को मिल जाए और उसमें हमारा मन लग जाए तो बहुत बड़ी बात है।

देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कहा की सही कथा सुनने वाला श्रोता वो होता है जिसे भुख प्यास नहीं लगती। वो घर की सुध भूल जाता है, वो रोता है बिलखता है की मुझे भागवत कथा सुनने को मिल जाए।

महाराज जी ने कहा की मृत्यु को कोई नहीं टाल सकता, मृत्यु तीन चीजों से आती है एक समय, एक कारण, एक जगह। मृत्यु का समय तय है, कारण तय है और जगह तय है जब ये तीनों मिलती हैं तो मृत्यु हो जाती है। इसका अभिप्राय ये है की मृत्यु को हम टालना चाहे तो टाल नहीं सकते जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु जरुर होगी, मृत्यु से डरने की जरुरत नहीं है। मृत्यु बुरी ना हो ऐसा कर्म हम कर सकते हैं और मृत्यु को सुंदर बनाने के लिए भगवत नाम का स्मरण किजिए। मृत्यु को जीतना चाहते हो तो कर्मों से जीतो, कर्म अच्छे करो मृत्यु अच्छी होगी।

देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा का वृतांत सुनाते हुए कहा कि पुराणों की कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि को नरकासुर नाम के असुर का वध किया। नरकासुर ने 16 हज़ार 100 कन्याओं को बंदी बना रखा था। नरकासुर का वध करके श्री कृष्ण ने कन्याओं को बंधन मुक्त करवाया। इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा की समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा अतः आप ही कोई उपाय करें। समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया। इस कारण भगवान ने १६१०० रूप बनाकर सबके साथ एक मुहूर्त में एक साथ विवाह किया था। कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने इतने विवाह किये। भगवान ने कामनावश विवाह नहीं किया था, करुणावश किया था। भगवान कहते हैं जिसको कोई नहीं अपनाता अगर वो मेरी शरण में आये तो मैं उसे अपना लेता हूँ।

भगवान श्री कृष्ण ने कामदेव पर विजय प्राप्त की है। उनके संकल्प मात्र से उनके पुत्रों की गिनती एक लाख इकसठ हजार अस्सी थी। भगवान श्री कृष्ण ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। भगवान अपने मुकुट पर मोर पंख इसीलिए लगाते हैं क्योंकि मोर एकमात्र ऐसा प्राणी है जो सम्पूर्ण जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करता है। मोरनी का गर्भ भी मोर के आंसुओ को पीकर ही धारण होता है। इत: इतने पवित्र पक्षी के पंख भगवान खुद अपने सर पर सजाते है।

भगवान कृष्ण मित्र और शत्रु के लिए समान भावना रखते है इसके पीछे भी मोरपंख का उद्दारण देखकर हम यह कह सकते है। कृष्ण के भाई थे शेषनाग के अवतार बलराम और नागो के दुश्मन होते है मोर। अत: मोरपंख सर पर लगाके कृष्ण का यह सभी को सन्देश है की वो सबके लिए समभाव रखते है। मोरपंख में सभी रंग है गहरे भी और हलके भी। कृष्णा अपने भक्तो को ऐसे रंगों को देखकर यही सन्देश देते है जीवन ही इस तरह सभी रंगों से भरा हुआ है कभी चमकीले रंग तो कभी हलके रंग, कभी सुखी जीवन तो कभी दुखी जीवन।

पूज्य श्री देवकीनंदन ठाकुर जी महाराज ने कथा बढ़ाते हुए कहा कि श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता की कथा श्रोताओं के श्रवण कराई। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण था। वह और उसका परिवार अत्यंत गरीबी तथा दुर्दशा का जीवन व्यतीत कर रहा था। कई-कई दिनों तक उसे बहुत थोड़ा खाकर ही गुजारा करना पड़ता था। कई बार तो उसे भूखे पेट भी सोना पड़ता था। सुदामा अपने तथा अपने परिवार की दुर्दशा के लिए स्वयं को दोषी मानता था। उसके मन में कई बार आत्महत्या करने का भी विचार आया। दुखी मन से वह कई बार अपनी पत्नी से भी अपने विचार व्यक्त किया करता था। उसकी पत्नी उसे दिलासा देती रहती थी। उसने सुदामा को एक बार अपने परम मित्र श्रीकृष्ण, जो उस समय द्वारका के राजा हुआ करते थे, की याद दिलाई। बचपन में सुदामा तथा श्रीकृष्ण एक साथ रहते थे तथा सांदीपन मुनि के आश्रम में दोनों ने एक साथ शिक्षा ग्रहण की थी।

सुदामा की पत्नी ने सुदामा को उनके पास जाने का आग्रह किया और कहा, “श्रीकृष्ण बहुत दयावान हैं, इसलिए वे हमारी सहायता अवश्य करेंगे।’ सुदामा ने संकोच-भरे स्वर में कहा, “श्रीकृष्ण एक पराक्रमी राजा हैं और मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। मैं कैसे उनके पास जाकर सहायता मांग सकता हूं ?’ उसकी पत्नी ने तुरंत उत्तर दिया, “तो क्या हुआ ? मित्रता में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होता। आप उनसे अवश्य सहायता मांगें। मुझसे बच्चों की भूख-प्यास नहीं देखी जाती।’ अंततः सुदामा श्रीकृष्ण के पास जाने को राजी हो गया। उसकी पत्नी पड़ोसियों से थोड़े-से चावल मांगकर ले आई तथा सुदामा को वे चावल अपने मित्र को भेंट करने के लिए दे दिए। सुदामा द्वारका के लिए रवाना हो गया।

महल के द्वार पर पहुंचने पर वहां के पहरेदार ने सुदामा को महल के अंदर जाने से रोक दिया। सुदामा ने कहा कि वह वहां के राजा श्रीकृष्ण का बचपन का मित्र है तथा वह उनके दर्शन किए बिना वहां से नहीं जाएगा।

श्रीकृष्ण के कानों तक भी यह बात पहुंची। उन्होंने जैसे ही सुदामा का नाम सुना, उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। वे नंगे पांव ही सुदामा से भेंट करने के लिए दौड़ पड़े। दोनों ने एक-दूसरे को गले से लगा लिया तथा दोनों के नेत्रों से खुशी के आंसू निकल पड़े। श्रीकृष्ण सुदामा को आदर-सत्कार के साथ महल के अंदर ले गए। उन्होंने स्वयं सुदामा के मैले पैरों को धोया। उन्हें अपने ही सिंहासन पर बैठाया। श्रीकृष्ण की पत्नियां भी उन दोनों के आदर-सत्कार में लगी रहीं। दोनों मित्रों ने एक साथ भोजन किया तथा आश्रम में बिताए अपने बचपन के दिनों को याद किया।

भोजन करते समय जब श्रीकृष्ण ने सुदामा से अपने लिए लाए गए उपहार के बारे में पूछा तो सुदामा लज्जित हो गया तथा अपनी मैली-सी पोटली में रखे चावलों को निकालने में संकोच करने लगा। परंतु श्रीकृष्ण ने वह पोटली सुदामा के हाथों से छीन ली तथा उन चावलों को बड़े चाव से खाने लगे।

भोजन के उपरांत श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपने ही मुलायम बिस्तर पर सुलाया तथा खुद वहां बैठकर सुदामा के पैर तब तक दबाते रहे जब तक कि उसे नींद नहीं आ गई।

कुछ दिन वहीं ठहर कर सुदामा ने कृष्ण से विदा होने की आज्ञा ली। श्रीकृष्ण ने अपने परिवारजनों के साथ सुदामा को प्रेममय विदाई दी।

इस दौरान सुदामा अपने मित्र को द्वारका आने का सही कारण न बता सका तथा वह बिना अपनी समस्या निवारण के ही वापस अपने घर को लौट गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों को क्या जवाब देगा, जो उसका बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। सुदामा के सामने अपने परिवारीजनों के उदास चेहरे बार-बार आ रहे थे।

परंतु इस बीच श्रीकृष्ण अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे। सुदामा की टूटी झोंपड़ी एक सुंदर एवं विशाल महल में बदल गई थी।

उसकी पत्नी तथा बच्चे सुंदर वस्त्र तथा आभूषण धारण किए हुए उसके स्वागत के लिए खड़े थे। श्रीकृष्ण की कृपा से ही वे धनवान बन गए थे। सुदामा को श्रीकृष्ण से किसी प्रकार की सहायता न ले पाने का मलाल भी नहीं रहा। वास्तव में श्रीकृष्ण सुदामा के एक सच्चे मित्र साबित हुए थे, जिन्होंने गरीब सुदामा की बुरे वक्त में सहायता की।

कथा का आयोजन विश्व शांति सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। कथा पंडाल में कई गणमान्य अतिथियों ने अपनी गरिमामयी उपस्थिती दर्ज करवाई ।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.